सात से नौ वर्ष के बच्चों की कक्षा मे माताजी की क्रिया

 

    (स्वयं बच्चों के प्रकट किये हुए विचारों क्वे आधार पर माताजी कक्षा का नाम देती हैं : 'आर्ब्र अंसोलेभये' [ सुधा प्रकाशित पैड ] ! वे समझाती

 

पेड़ हैं अभीप्सा करता हुआ और बढ़ता हुआ जीवन । सूर्य का प्रकाश है ' सत्य ' का प्रकाश।

 

   तर्क का शीतल प्रकाश जीवन को बढ़ने और विकसित होने मे सहायता नहीं देता । जब सूर्य अपनी आनंद-भरी रश्मियों को घराती पर उंडेलना हैं तब 'सत्य ' का अम्मा- भरा और जीवनदायी प्रकाश हीं सहायता देता हैं ।

 

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  (अध्यापक नये क्रिया-कलापों का परिचय करवाते हैं जैसे कोई के बरतन बनाना बागबान गत्ते सै चिड़िया-धर बनाना कोष का निरीक्षण करना इत्यादि बच्चे इन क्रिया- कलापों को पसंद करते हैं लेकिन फिर ''पढ़ने- लिखने'' का काम बहुत ले स्वीकारते हैं !)

 

अच्छा आरंभ है । यह स्वाभाविक रूप से ज्यादा बौद्धिक कार्य-कलापों के प्रति बढ़ेगा, और इस बीच सावधानी से किया गया काम कुछ सीखने का अवसर होता है ।

 

   (कुछ प्रश्रों के उत्तर)

 

 १ - बच्चों को कक्षा मे खेल के लिये भी बंद कर देना अच्छा नहीं है ।

२ - क्षण-भर की चुप्पी और एकाग्रता सभी बच्चों के लिये अच्छी हैं । लेकिन प्रार्थना अनिवार्य नहीं होनी चाहिये । जिन्हें करनी हों उन्हें प्रोत्साहन दिया जायेगा । मेरा सुझाव यह  हैं  कि कक्षा मे एक तख्ता लगाया जाये जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों मे लिखा हो :

 

   ''माताजी हमारी सहायता और हमारा पथ-प्रदर्शन करने के लिये यहां हमारे बीच सदा उपस्थित हैं । ''

 

   अधिकतर बच्चे समझ जायेंगे, और कुछ अनुभव करने मे सक्षम हैं ।

 

(दिसम्बर १९६०)

 

*

 

(अध्यापिका को लगता है कि बच्चे उपद्रवी बल्कि आत्हसी हैं और तोतों की नियति वह है  क्या बात ऐसी इसलिये हैं कि उनकी असली रुचि अध्ययन की ओर नहीं है?

 

हां !

 

    कक्षा में शांति और स्थिरता और बच्चों से काम प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये?

 

सबसे उपयोगी चीज हैं उनके अंदर अध्ययन के लिये सच्ची रुचि, सीखने और जानने की आवश्यकता पैदा करना या जगाना, उनकी मानसिक जिज्ञासा को जाग्रत करना ।

 

   (अध्यापिका परिणामों के अभाव की शिकायत करती है !)

 

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महीनों, यहांतक कि सालों के कठोर अध्यवसायपूर्ण नियमित और हठीले प्रयास के बाद हीं तुम अधिकार के साथ (और तब भी ।) कह सकतीं हो कि वह व्यर्थ और असफल रहा ।

 

  कैसे किया जाये?

 

   जबरदस्ती करना न तो शिक्षा का श्रेष्ठ सिद्धांत है न हीं सबसे अधिक उपयोगी ।

 

   सच्ची शिक्षा तो उस चीज को विकसित करना और खोलना चाहिये जो पहले से हीं ग्रहण करनेवाली सत्ताओं में विधामान है । जिस तरह फूल सूर्य के प्रकाश मे खिलते हैं, उसी तरह बच्चे आनंद मे खिलते हैं । यह कहने की जरूरत नहीं कि आनंद का मतलब कमजोरी, अस्तव्यस्तता और गड़बड़ नहीं । बल्कि एक प्रकाशमय सद्भावना हैं जो अच्छे को प्रोत्साहन देती हैं  और बुरे पर कठोरता से जोर नहीं देती ।

 

     'कृपा' हमेशा न्याय की अपेक्षा 'सत्य' के ज्यादा नजदीक होती है ।

 

     माताजी कक्षा मे काम कर सकें हसके लिये क्या किया जाये?

 

ऐसी कोई चीज नहीं, कोई पद्धति नहीं, कोई प्रक्रिया नहीं जो अपने-आपमें बुरी हो सब कुछ इस पर निर्भर हैं  कि तुम किस वृत्ति से करते हों ।

 

   अगर तुम मेरी मदद चाहती हो, तो उसे तुम काम के इस सिद्धांत को स्वीकारने या उसे त्यागने से नहीं प्राप्त कर सकतीं । बल्कि कक्षा से पहले, एकाग्र होकर, अपने हृदय मे (और अगर संभव हों तो अपने सिर मै भी) मौन और शांति को उत्पन्न करके, और इस सच्ची अभीप्सा के साथ मेरी उपस्थिति को बुलाकर कि मैं -अ एक क्रिया के पीछे उपस्थित रहूं, तुम मेरी सहायता प्राप्त कर सकतीं हो, उस तरह नहीं जिस तरह तुम सोचती हो कि मै काम करूंगी (क्योंकि यह केवल मनमानी और आवश्यक रूप से गलत धारणा हों सकती है), बल्कि शांति, स्थिरता और आंतरिक सहजता के साथ । यह रहा अपनी कठिनाई मे से निकलने का सच्चा, एकमात्र उपाय ।

 

    और जबतक तुम इसे चरितार्थ करने की प्रतीक्षा में हो, तबतक अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों के अनुसार, सच्चाई के साथ और विक्षुब्ध हुए बिना, स्थिरता और अध्यवसाय के साथ अपना भरसक प्रयास करो ।

 

    'कृपा' हमेशा उसके साथ रहती हैं जो भली-भांति करना चाहे ।

 

    जहां बच्चों के साथ  काम का सवाल है माताजी किस चीज को ''अध्यवसाय'' कहती हैं?

 

कापी में मै जो कहना चाहती थी, वह यह कि जबतक आंतरिक मनोवैज्ञानिक !

 

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परिवर्तन चोट पहुंचाये बिना बाहरी परिवतंन न लाये तबतक' अपना काम चुपचाप जारी रखना हमेशा ज्यादा अच्छा हैं । इसी को मैं कहती हूं'' अध्यवसाय' ' ।

 

(जनवरी १९६१)

 

   काम और अनुशासन में शिथिलता आ रही है क्या यह अध्यापक में ''प्राण की हड़ताल'' के कारण है?

 

 निश्चय ही । प्राण के असहयोग से उत्पन्न शक्ति की कमजोरी शिथिलता का कारण है । बच्चे इतने पर्याप्त रूप से मन मे नहीं रहते कि वे सहज रूप सें ऐसे मानसिक संकल्प की बात मान लें जिसे प्राण-शक्ति का सहारा प्राप्त न हों, जो उन्हें बाहरी अभिव्यक्ति के बिना हीं प्रभावित करती हो । जब प्राण सहयोग देता है, तो मेरी शक्ति उसके द्वारा काम करती हैं और अपनी उपस्थितिमात्र से प्राण मे सहज रूप से व्यवस्था -बनाये रखती हैं ।

 

  छोटे बच्चे उस मानसिक शक्ति के प्रति कम संवेदनशील होते हैं जो प्राणशक्ति से आवेष्टित न हो । और प्राण-शक्ति प्राप्त कर सकने के लिये स्वयं तुम्हें पूर्ण रूप से स्थिर होना चाहिये ।

 

   (अध्यापक बच्चों के लाख उनके मनपसंद विषयों को लेकर अध्ययन की एक परियोजना बनाने का सुझाव रखता !)

 

 हां, यह विचार अच्छा है । मैत्रीपूर्ण सहयोगवाला वातावरण हमेशा ज्यादा अच्छा होता हैं !

 

(फरवरी १९६१)

 

*

 

   कठिन समय का आरंभ हो खा है अध्यापक के लिये कौन-सी सच्ची होगी !

 

 केवल चैत्य अभीप्सा हीं सच्ची है । जो कुछ प्राण और मन से आता हैं वह आवश्यक रूप से अहंकार-मिश्रित और मनमाना होता है । बाहरी संपर्क के साथ प्रतिक्रिया द्वारा नहीं, बल्कि और निर्विकार सद्भावना की दृष्टि मे काम करना चाहिये । बाकी सब कुछ तो केवल उलझते हुए और मिश्रित परिणाम देकर अव्यवस्था को बनाये रखेगा ।

 

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   (किसी अध्यापक की से उद्धरण) : मुझे लगता हैं केवल मानसिक आवेग ही काम करवाते हैं और थे निशाना चूक जाते हैं इसलिये यद्यपि मैं कम हस्तक्षेप करता हूं फिर मी मुझे लगता है वह बहुत ज्यादा हैं क्योंकि वह सच्ची चीज नहीं है और मेरा ख्याल है कि आपकी बात से मैं यह समझा हूं कि सच्ची स्थिरता हर प्रकार के बाहरी हस्तक्षेप से बहुत ज्यादा उपयोगी है

 

  मुझे यह भी लगता है कि अमर मैं एक अनुभव मे सै गुजर हा हूं तो बच्चों के लिये मी वही बात है और वास्तव मे हम एक साथ मिलकर इस अनुभव से गुजर रहे हैं हम एक ही नाव के यात्री हैं; केवल भगवान ही उसका अर्थ और परिणाम जानते हैं

 

 समस्या पहली नजर मे जैसी मालूम होती है उससे कहीं अधिक अर्थ रखती हैं । यह वास्तव मे हर प्रकार के अनुशासन और जबरदस्ती के विरुद्ध बच्चों की प्राणिक शक्तियों का विद्रोह है । साधारण सामान्य तरीका होगा सभी अधम बच्चों को स्कूल से बाहर कर देना और केवल '' अच्छे' ' बच्चों को रखना । लेकिन यह पराजय और निर्बलता हैं ।

 

  अगर तुम अंततः पूर्ण स्थिरता में, आंतरिक शक्ति के संचार द्वारा, इस विद्रोह को वश में ला सको, तो वह परिवर्तन और सच्ची समृद्धि बन जाता हैं  । मै यही कोशिश करना चाहती हूं और आशा करती हू कि तुम्हारे लिये मेरे काम में सहयोग देते रहना संभव होगा । और अब चूंकि जो करना चलती हूं तुम केवल वही नहीं, बल्कि उस काम की रचना और प्रक्रिया भी समझ गायें, इसलिये मुझे विश्वास है कि हम सफल होकर रहेंगे । तुम्हें असफलताओं के लिये तैयार रहना चाहिये और हताश नहीं होना चाहिये ।

 

   प्रकाश को स्वीकार करने और उसके द्वारा परिवर्तित होने से पहले प्राणिक शक्तियां निराशा से पागल होकर लड़ती हैं, यह विशेष रूप से बच्चों मे होता है, क्योंकि उनकी तर्क-बुद्धि क्रम विकसित होती हैं । लेकिन अंतिम विजय सुनिश्चित है, और हमें टिके रहना तथा प्रतीक्षा करना जानना चाहिये ।

 

    (अध्यापक प्रकाश प्रेम लचीलापन और कक्षा मैं माताजी क्वे काम में सहयोग देने के लिये जो कुछ आवश्यक हो उसे प्राप्त कर सकने के लिये प्रार्थना करना हैं !)

 

 माताजी इस पूरे उद्धरण के नीचे लकीर खींचती हैं और हाशिये पर टिप्पणी -बढ़ाती हैं : ''यह ठीक हैं  । ''

 

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यह सब निरंतर तुम्हारे साथ हैं । उनके प्रति खुले रहो और उन्हें काम करने दो ।

 

(मार्च १९६१)

 

*

 

   (अध्यापक बच्चों से दलों मे काम करवाने की सोचता है क्या उसे उनके स्तर के अनुसार स्वयं दत्त बनाने चाहिये या बच्चों को अपनी-अपनी पसंद के अनुसार करने देना चाहिये..."?)

 

 उन्हें अपनी सहज अनुभूतियों के साथ दल बनाने दो ।

 

 अध्यापक में स्थिरता आवश्यक रूप से कक्षा मे मी स्थिरता लायेगी यानी ''शान्त वातावरण जिसमें हर पथ बिना शोर और विरुद्धता के बिना विकलता और आलस्य के अपने छन्द और अपनी क्षमताओं के अनुसार काम करेगा..."?

 

 अगर तुम्हारी स्थिरता सर्वांगीण है, यानी, एक साथ आंतरिक और बाह्य है, अगर वह 'भागवत उपस्थिति' की धारणा पर आधारित है, और निर्विकार हैं, यानी, हर परिस्थिति मे सतत और अपरिवर्तनीय है तो वह निःसंदेह सर्वशक्तिमान होगी, और बच्चे अनिवार्य रूप से उसके प्रभाव के आगे झुक जायेंगे और कक्षा, सहज और लगभग स्वाभाविक रूप से, ठीक वही होगी जो तुम चाहते हों कि हो । '

 

(अप्रैल १९६१)

 

*

 

   (अध्यापक का ख्याल है कि बच्चों में काम के लिये रुचि और काम के लिये आनंद को विकसित करना चाहिये माताजी उत्तर देती हैं :)

 

 स्कूल, कक्षा और काम के बारे में तुम जो कुछ कहते हो ठीक हीं कहते हो, और तुम संगठन के लिये जो प्रयास करना चाहते हो उसके साथ मै पूरी तरह सहमत हूं ।

 

   (माताजी बच्चों को संबोधित करते हुए थे दो संदेश मी लिखती हैं :)

 

 अगर तुम्हें काम नापसंद हैं , तो तुम जीवन में हमेशा दुःखी रहोगे ।

 

     १इस संदेश के बाद से कक्षा मे स्थिरता निश्रित रूप से आ गयी ।

 

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जीवन में सचमुच सुखी होने के लिये, काम पसंद करना चाहिये ।

 

(जुलाई १९६१)

 

*

 

  इस कक्षा के बच्चों के लिये माताजी के कुछ ओर संदेश

 

 मेरे  प्रिय बच्चे, काम पसंद करो और तुम सुखी रहोगे । सीखना पसंद करो और तुम प्रगति करोगे ।

 

(बच्चों ने अपने अध्यापक के लाख साल-भर का कार्यक्रम बना लिया : फ्रेंच मे बोलना ठीक तरह पढ़ने बिना मूत्र किये फ्रेंच लिखना अच्छी तरह गिनती सीखना हिसाब क्वे सवालों को समझना जोड़ बाकी गुजरा मान जानना' कक्षा की कापी मे माताजी उत्तर देती हैं:)

 

 मेरे प्रिय बच्चे, मैंने तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी और मैं इस बात से सहमत हूं कि साल के अंत में तुम यह सब चीजें खूब अच्छी तरह जानो जो तुमने यहां लिखी हैं ।

 

   लेकिन एक बात पर मै .तुम्हारा ध्यान खींचना चाहती हूं, क्योंकि यह केंद्रीय और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है : वह है कक्षा मे तुम्हारी वृत्ति और वह मनोदशा जिसमें तुम स्कूल जाते हो ।

 

  कक्षा में अपनी दैनिक उपस्थिति का लाभ उठाने के लिये, तुम्हें वहां सीखने, सतर्क और एकाग्र होने, अध्यापक जो कहते हैं उन पर कान देने और गंभीरता तथा शांति के साथ काम करने की सच्ची इच्छा लेकर जाना चाहिये ।

 

  अगर तुम अपना समय चिल्लाने में, विक्षुब्ध होने मे और निक्षेतना तथा असभ्य बच्चों की तरह सब कुछ उलट-पुलट देने मे बिताते हो, तो तुम अपना समय बरबाद करते हो, अध्यापक का समय नष्ट करते हो और .कुछ भी नहीं सीखते । साल के अंत मे तुमसे यह कहने के लिये बाधित होऊंगी कि तुम खराब विद्यर्श्गि हो और तुम एक कक्षा से दूसरी में जाने के योग्य नहीं हो ।

 

   कक्षा मे सोखने की इच्छा के साथ आना चाहिये, अन्यथा यह समय नष्ट करना हैं, क्योंकि अगर तुममें एक भी असभ्य हो तो वह बाकी सबको परेशान करने के लिये पर्याप्त है । मैं चाहती हूं कि तुम यह निश्चय करो : तुम अच्छे, शांत, सतर्क बच्चे बनोगे, और अच्छी तरह काम करोगे । इस कापी में तुम्हें मुख यहीं वचन देना चाहिये ।

 

   और जब तुममें से हर एक, अपनी पूरी सदिच्छा के साथ, लिख ले तो कापी मेरे पास भेज दो ताकि मै तुम्हें अपने आशीर्वाद दे सकूं ।

 

(१९६१ के आरंभ में)

 

 (बच्चे सीधे नहीं बैठते और बुरी तरह  लिखते हैं? माताजी की टिप्पणी:)

 

 बुरी तरह बैठने की अपेक्षा सीधा बैठना अधिक थकाऊ नहीं हैं । जब तुम सीधे रहते हो, तो शरीर सामंजस्यपूर्ण रूप सें विकसित होता हैं । जब तुम बुरी तरह बैठते हो, तो शरीर विकृत हों जाता है और कुरूप बन जाता है ।

 

   घसीटा मारने की अपेक्षा साफ-साफ लिखना ज्यादा थकानेवाला नहीं है । जब गृहकार्य साफ-साफ किया गया हो, तो वह आनंद से पढ़ा जाता है । जब वह खराब अक्षरों में लिखा जाता है, तो वह पढ़ा भी नहीं जा सकता ।

 

   जो कुछ करना हो उसे ध्यान देकर करना हर प्रकार की प्रगति का आधार हैं ।

 

 (१९६१)

 

   दिन बीत जाते हैं, सप्ताह बीत जाते हैं, महीने बीत जाते हैं, साल बीत जाते हैं और काल अतीत मे विलुप्त हो जाता हैं  । और बाद मैं, जब वे बड़े हो जाते हैं, जिन्हें अब बालक रहने का परम सौभाग्य प्राप्त नहीं रहता, तो उन्हें इस बात का खेद होता है कि उन्होंने अपना समय खो दिया, हैं  उसका उपयोग जीना जानने के लिये जो चीजें आवश्यक हैं उन सबको सीखने में कर .सकते थे ।

 

(मार्च १९६१)

 

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